भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आस्था - 43 / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह किसी
एक आदमी का काम नहीं
जो बाजार जाए
और चुनरी खरीदकर
माँ-मानवता को
भेंट-स्वरूप प्रदान कर दे
क्योंकि
इसके धागे-धागे को
जरूरत है
एक ऐसे बैराग की
जहाँ
विभिन्न धर्मों में विभाजित समाज
मिला हाथ में हाथ
झूमने लगे और लगे गाने गीत
जिसके शब्द-शब्द से
झरता हो शहद
और सदियों से पनपती कटुता
गर्मियों में पिघलती बर्फ की तरह
सूखी नदियों को दे जल
कर सके पैदा और कपास
बना सके चुनरी मानवता के लिये।