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आस्था - 4 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
परंतु मानवता से जुड़े
कई ऐसे शब्द हैं
जिसे मानव खुले आम
समाज में, बोली लगा रहा है
और असहाय होकर
रह गई है, माँ-मानवता।
असहाय, इसलिये नहीं
कि उसका अपना
कोई सहारा नहीं है
अपितु, उसकी बाहों में ही
चल रही हैं, धड़कनें
आज के समाज की।
मेरी माँ-मानवता
चुपचाप सुन, रो लेती है
जब सुनाई देते हैं
कई ऐसे शब्द
जिससे आती हो
बदबू षडयंत्र की।
षडयंत्र
जिसकी थाली तो सजी है
परपंच पूजा के फूलों से
परंतु
छुपा रखी है, उसमें
स्वार्थ रूपी कटार।