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आस्था - 52 / हरबिन्दर सिंह गिल

हाँ जब माँ के दूध का
नाम लिया है, मुझे मेरा
बचपन याद आ गया है
जब सुनाया करती थी
मेरी माँ लोरियां मुझे।

लगता था
जिंदगी इतनी ही मधुर होगी
जितने मधुर होते थे
बोल लोरियों के।

परंतु वो एक दुनियाँ थी
सुनहरे सपनों की
नहीं था, मालूम
बड़े होकर
लोरियां लुप्त होकर रह जाती हैं
झूठे नारों में
क्योंकि यहाँ
माँ की गोद नहीं है
सड़क और गलियाँ हैं
जहाँ, झूठे सपनों की
लग रही हैं, बोलयाँ
और कुचली जा रही है
बड़ी बेरहमी से
खरीददारों के पैरों तले
मेरी माँ-मानवता।