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आस्था - 54 / हरबिन्दर सिंह गिल

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कितना अच्छा होता
मानव लगा सकता बोलियाँ
जहाँ जिंदगी की
खुशियां खरीदने वाले
बेच सकते कुछ प्यार
बाजार में हाहाकार की जगह
दिखाई दे सकती चहल पहल
हँसते-गाते चेहरों की
और गुनगुनाता मानव
करा सकता बोध
यहीं कहीं
विचरण कर रही है
कोई ऐसी आत्मा
जिसकी लोरियों से
मानव भी बन बालक
मार रहा है, किलकारियां।