भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आस्था - 56 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
परंतु मेरी आस्था
मेरे साथ है
मेरी कल्पना की
दुनियाँ की सखी है
क्योंकि कल जब
मैं नहीं रहूँगा
यही मेरी भटकती
आत्मा की होगी साथी।
मुझे निकट भविष्य में
इससे पहले कि
अलविदा कहूँ दुनियाँ से
नहीं लगता
दरवाजे पर बैठी
मेरी माँ-मानवता को
घर के अंदर
आने के लिये कहेगी
उनकी अपनी ही औलाद।