भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आस्था - 68 / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भगवान
मानव से कुछ नहीं माँगता
सिवाय इसके
उसकी आस्था में
माँ-मानवता के लिये
कहीं कोई
सलवट न हो
वरना पूजा-स्थलों पर
चढ़ने वाली
रेशमी चादरें भी
दाग से भरी
नजर आएंगी।
काश मानव
आस्था से चमकती
चादर को
अपना पहनावा बना सकता
धर्म के नाम पर
नित बँटते समाज को
ठहराव मिल जाता।

परंतु
मेरी आस्था
दिन प्रति दिन
अपना रूप
खोती जा रही है