Last modified on 27 अप्रैल 2022, at 23:56

आस्था - 6 / हरबिन्दर सिंह गिल

ये वही परिधियां हैं
जहाँ मानव
अपने स्वार्थों के अनुकूल
शब्दों को
सजाता और संवारता है।

काश, मानव
इन परिधियों की सीमाएँ
आसमान के क्षितिज तक
ले जा सकता
शब्दों के अर्थ में आ जाती
सच्चाई प्रकृति की
और हो प्रसन्नचित्त
झूमने लगती
मेरी उदास माँ-मानवता।

क्षितिज की सीमाओं में
एक अपना खुलापन होता है
जहाँ कोई परिधियां नहीं होती
और न ही विचारों की उड़ान
किसी के आधीन होती है।