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आस्था - 7 / हरबिन्दर सिंह गिल

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मानव ने शब्दों को
भाषाओं के जाल में
इतना उलझा दिया है
कि साहित्य
संकुचित हो गया है।

साहित्य, तोते की तरह
एक खूबसूरत पालतू
पक्षी बनकर रह गया है।
उसे सिखाया जाता है
रटाया जाता है
क्या बोलना है
सिर्फ वही बोलता है
जो मालिक चाहता है।

काश साहित्य
पिंजरे से आजाद हो
आकाश में
खुलेआम विचरण कर सके
और देख सके
कितना कठोर आजीवन कारावास
बिता रही है,
उसकी माँ-मानवता
अपने ही पुत्र के
बनाए हुए कारावास में।