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आस्था - 8 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
शायद शब्द
कुछ कहना चाहते हैं
परंतु
चारों तरफ फैले हुए
अहं के कोलाहल में
मानव बहरा हो गया है।
कैसी व्यथा है
मानव
अपने ही हित को
अनहित कर रहा है
शब्दों की आवाज को
अनसुना कर
अपने जीवन में
एक शून्य
पैदा कर रहा है।
इसी शून्य में
पैदा हो रहा है
एक चक्रवात
क्योंकि वहाँ
भावनाओं को बहने की
अनुमति नहीं है।
मानव को डर है
कहीं साहित्य
भावनाओं में बहने लगा
शब्द अपना अर्थ बदलने से कर देंगे
इन्कार
और नंगा होकर रह जायगा
मानव
अपने ही उजड़े शहर में।