आस्था / समीक्षा / डॉ. हुकुमपाल सिंह विकल
मनुष्य विधाता की अनन्यतम कृति है और मनुष्यता मनुष्य की। विधाता तो अपनी कृति के प्रति सदैव सतर्क रहा है परन्तु मनुष्य ने जब भी अपने दायित्व बोध को ठीक से समझने की भूल की है मनुष्यता धरती पर अपने सही रूप में नहीं रही पाई। जब मनुष्यता ठीक नहीं होगी तो निश्चित ही मनुष्य भी ठीक से नहीं रह पायेगा। मनुष्ययता के लिए मनुष्य का अच्छा होना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि जहाँ अच्छाई है वहाँ सच्चाई है। जहाँ सच्चाई है वहाँ ईश्वर है और जहाँ ईश्वर है, वहाँ पर मनुष्य होगा और मनुष्य में होगी उसकी मनुष्यता। संसार के सारे प्रयास उसी मनुष्य के लिए हैं। जो मनुष्यता के लिए जीना चाहता है। धरती पर मनुष्यता को अपने समग्र रूप में लाना चाहता है। कैप्टिन गिल का कवि भी उसी प्रयास की एक कड़ी है वे एक सैनिक अधिकारी रहे हैं। उन्होंने सीमाओं पर मनुष्यता को दम तोड़ते देखा है देश के बटवारे पर होती मारकाट को भी देखा है। और वह भी उसी के मनुष्य के द्वारा।
आदमी ही आदमी की बात करता है।
आदमी पर स्वयं ही आघात करता है।।
ऐसी स्थिति में मनुष्य का दायित्व बोध कितना कठिन हो जाता है।
माँ, ऐसा शब्द है जिसे सुनते ही ममता अपने आप अपने सामने आकर खड़ी हो जाती है। माँ, सेवा, त्याग, करुणा तथा स्नेह की साक्षात प्रतिमा है।
जहाँ माँ है, वहाँ सब कुछ है तभी तो किसी ने ठीक ही कहा है
है माता अत्यन्त अपरमित तेरी महिमा।
पुत्र प्रेम के लिए अनूठी, तेरी गरिमा।।
धन्य धन्य तू धन्य महामुद मंगल कारी।
जग जननी के योग्य वंद्य है विपदा हारी।।
अस्तु माँ का होना ही पुत्र की प्रगति का शुभ सूचक है। जहाँ माँ का मान नहीं, वहाँ मनुष्यता कैसे रह सकती है? क्योंकि माँ ही एक अच्छे और सच्चे पुत्र की रचना करने में समर्थ है। हमारे यहाँ माँ को सबसे बड़ी देवी माना गया है। वह पूज्य है, वह आराधनीय है। उसके बिना सब कुछ अधूरा है। माँ मानवीय मूल्यों का अक्षय स्त्रोत है। मानवता की साक्षात प्रतिमा है माँ और मानवता ये दो ही विश्व की सारी गरिमा के आधार हैं। सृजन के सूत्र हैं। सांस्कृतिक चेतना के अजस्त्र कोष हैं। कलम के धनी भाई गिल ने इन्हीं दोनों को अपनी सृजनशीलता की क्षमता सौंपते हुए अपनी इस लम्बी कविता को 80 नए आयाम देकर काव्य जगत को कुछ नया देने का सार्थक प्रयास किया है। इसके लिए उनकी सर्वत्र सराहना होनी चाहिए।
आज की हिन्दी कविता समय और जीवन को लेकर चल रही है। समाज की हर धड़कन जिस दौर से गुजर रही है तथा आज की सर्जना अपने आस-पास जिस जमीन को देखकर जीने का प्रयास कर रही है उसमें इस प्रकार के काव्य प्रयोग निश्चित् ही आने वाले समय के लिए प्रेरणा के प्रकाश पुंज हैं। उनको नमन होना चाहिए। इस कृति का हर शब्द विसंगतियों के बीच से गुजरता हुआ, यातनाओं के केन्द्रों की गंध सेता हुआ अपने काव्य बोध को अधिक चरितार्थ करता प्रतीत होता है। वह कदम-कदम पर अपने परिवेश से बतियाता हुआ, बे झिझक स्वार्थ और संकीर्णताओं के दायरों को तोड़ने की छटपटाहट को अंकित करता हुआ दिखाई देता है-देखिए-”कैसा समय आ गया है शब्दों के अपने अर्थ आदमी के अपने अर्थ बदलाव अर्थ का इतना उग्र।....समय था शब्दों का जीवन में अपना क्योंकि इन्हीं शब्दों से बनती थी जीवन की राह। समय का बदलाव और आदमी का भी अपना अपने अर्थ में।“
वैसे तो सत्य का अन्वेषण ही किसी भी रचना का उद्देश्य होता है। परन्तु सत्य जितना सत्य होता है उतना वह कटु भी होता है। अतः उसे कल्पना और सर्जना की मिठास देकर अधिक सहज बनाया जाता है। इस बनावट के लिए जो बुनावट की जाती है, वही तो कवि का कौशल होता है और यही कौशल सृजन को सार्थकता प्रदान करता है। तभी तो साहित्यविद् रचना को रचनाकार का व्यक्तित्व मानते हैं। जिस प्रकार काव्यकार की देह के भीतर उसका प्राणत्व होता है उसी तरह हर काव्य रचना के भीतर उसका कथ्य होता है। इसी कथ्य तत्व की प्रमाणिकता के लिए कवि शब्दों का रुपविधान करता है। यह रुप विधान जब भी जितना सहज होगा. संप्रेषित होगा और समय की परिस्थितियों के अनकूल होगा वह उतना ही सार्थक सिद्ध होगा। कैप्टिन गिल का यह शब्दों का रूप विधान सही में अपने में अनायातित है, अनूठा है क्योंकि उनका कवि अपने को कविता के रूप में साकार करना चाहता है और करता भी है। उन्हीं के शब्दों में-”बच्चो। बच्चाई के गीत गाओ। और मनुष्य से कहो। कुछ कहने की और कुछ करने की नीति सिखाकर। मुझसे और झूठ मत बोलो। बच्चों। बच्चों मानवता के गीत गाओ। और मनुष्य से कहो। दूसरों के दुःख में अपने स्वार्थो को ढूंढने की नीति सिखाकर और पथ भ्रष्ट मत करो। बच्चों सम्पन्नता के गीत गाओ और मनुष्य से कहो-हथियारों के व्यापार से पैसा कमाने की नीति सिखाकर और धोखा मत दो। बच्चों देश भक्ति के गीत गाओ और मनुष्य से कहो बनाई हुई राजनैतिक समस्याओं से लड़ने की नीति सिखाकर और शोषण मत करो। बच्चो प्यार से गीत गाओ और मनुष्य से कहो। साथ में गाने के लिए मानवता कोई वस्तु नहीं है खेलने के लिए। वह गाने के लिए है और है अपने अंतस में उतारने के लिए।“ कितना सटीक और समसामयिक कथन है कवि का अपने आने वाले भविष्य से वर्तमान को अधिक सार्थक बनाने के लिए।
यही कारण है कि कवि जब भी कोई रचना करता है तो उसे अपने आसपास अपने ही सामाजिक संस्कार दिखाई देते हैं। वह उन्हीं की आँखों से सबको देखता है, उन्हें जीता है और उन्हीं को अपने भावों के भावजाल में बाँधने का प्रयास करता है। वैसे भी हम अपने आस-पास अपने ही को तो तलाश करते हैं। कविता तभी तो जीवन के सत्य को शब्द देने में समर्थ हो पाती है। यदि हम अपनेपन को कविता से अलग कर दें तो वह वास्तव में कविता नहीं हो सकती भले ही वह शब्दों का अच्छा रूप विधान हो। भाव और संवेदना के साथ-साथ कविता के लिए यह भी आवश्यक है कि वह अपने यथार्थ के कितने निकट हैं? यथार्थ की धूल-धूसरित धरती पर खड़ा होने के लिए जो कविता प्रयास नहीं करती वह कविता भी कविता के सत्य को नहीं बखान सकती इस दृष्टि से भी प्रस्तुत कविता सच्चे अर्थों में एक अच्छी कविता के धर्म को निभाती हुई लगती है। देखिए एक बानगी-”यदि मानव मानवता में अपना अर्थ नहीं ढूंढेगा। जीवन अर्थहीन होकर किसी अंधेरे में एक दिन हमेशा के लिए गुम होकर रह जायेगा। अँधेरा एक ऐसा शब्द है जिसका साया। किसी को अछूता नहीं छोड़ता यह काया तो क्या चीज है। आत्मा भी कलंकित होकर रह जाती है काश। मानव, माँ मानवता की महत्ता को जान पाता। अपने जीवन का अर्थ जान ले। समाज की संकीर्णता के दायरे से बाहर आकर जीना सीख ले तो हो जायेगा। उजाला ही उजाला और तब आदमी और शब्द फिर जीवंत हो उठेंगे।“ कविवर कैप्टिन गिल अपनी इस पूरी कविता यात्रा में उसी सत्य को खोजते दिखाई देते हैं जो वास्तव में ही युवाबोध के लिए समीचीन प्रतीत होता है। जिनका काव्य सत्य महज जीवन की लयात्मकता को ही नहीं खोजता अपितु वह उसकी संस्कार धर्मिता को भी खोजने की पूरी कोशिश करता है और उसमें उसे सफलता भी मिलती दिखाई देती है। इस दृष्टि से भी इस कविता का रचना धर्म अपने जीवन में सम्भावनाओं के द्वार खोलता हुआ लगता है। पूरी कविता में शब्दों की लयत्ता भी रेखांकित करने योग्य है।
यह कृति निश्चित् ही अपने में अपना अलग महत्व रखती है, अपने शिल्प और कथ्य दोनों ही स्तरों पर अपने पूरे रास्ते में पड़ाव-दर-पड़ाव उन्हें हटने के संकेत से अलग करती हुई आगे बढ़ती जाती है। यह कविता वास्तव में ही एक आहट है जो अपने मार्ग को तो बुहारती है। आने वाले कल को भी सावधान करती है छन्द मुक्त होते हुए भी उसमें से छन्द की भी आहट सी सुनाई देती है। भाषा की सरलता और कथ्य की सहजता के कारण ऐसा लगता है कि वह अपने पाठकों से बतिया रही हो। व्यंजना की दृष्टि से भी उसमें काव्य-बोध की सभी शर्तें गुथी सी लगती हैं। यह अवश्य है कि कवि कहीं-कहीं रचते-रचते बयान जैसी बाते करने लगता है और उस समय भाव व्यजंना बौद्धिक चेतना बनकर रह जाती है। हालांकि कविता की अंतश्चेतना उस समय की सपाट बयानी को अपने ऊपर हावी नहीं होने देती। कैप्टिन गिल का कवि वास्तव में ही एक चतुर रचनाकार है गैर हिन्दी भाषी होते हए भी हिन्दी में इतनी सशक्त काव्य सर्जना के लिए वह बधाई का पात्र है। यह कविता उसके भावुक मन की बहुत ही सहज अभिव्यक्ति है जो मन को तो आनन्दित करती ही है उसे प्रभावित भी करती है। और यही इस कृति की विशेषता है।
मैं जब भी इस प्रकार की किसी कृति को पढ़ता हूँ, तो मुझे कविवर तुलसी की यह पंक्तियाँ याद आने लगती हैं। ”गिरा अरथ जल नीचि सम कहियत भिन्न-भिन्न बन्दह सीताराम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न।“ तुलसी उन्हीं राम के चरणों की वन्दना करने को कहते हैं जिन्हें संसार के दुःखी प्रिय हों तथा जगत के दर्द के लिए तत्पर हो उन्हें दूर करने के उददेश्य से इस कृति के विषय अर्थ सीताराम की तरह दीन----की बात करते हैं। कवि संसार की इस आपाधापी में सामाजिक विसंगतियों में भ्रष्टता में तथा स्वार्थ साधना के अनूठे अभिनय में माँ और मानवता दोनों की तृप्ति दिखाई देती है। आज का आदमी अपने सुख के लिए क्या नहीं कर रहा है? उसे बस अपना सुख चाहिए। कदाचरण के किसी मूल्य पर भी। उससे कवि की आत्मा कराह उठती है। ”इस दुनिया“ में जब रात और दिन/मानव की गर्दन पर। अनिश्चतता की तलवार/लटक रही हो। तो कैसे कोई शान्ति की बात कर सकता है। शायद आने वाली पीढ़ियों के लिए। शान्ति एक अतीत का सपना बनकर न रह जाए। कभी उनके पूर्वज जिसमें रहते थे। इसीलिए क्यों न ऐसे सपनों की दुनिया में जिया जाए। जहाँ बच्चे देख सकें। आशा की किरण“ पूरी पुस्तक की यह कविताएँ वास्तव में ही कवि के काव्य बोधीय आत्मा की उपज हैं। वह जिस सामाजिक जीवन को जीना चाहता है, उसके लिए वह पूरी तरह से प्रतिबद्ध है, अपनी लेखनी की पूरी आस्था के साथ। यही कारण है कि यह कविता अपने में पूरी कविता की सार्थकता को जीती है। और जीने के साथ समाज को भी जीने के लिए आगाह करती है।
किसी कवि ने ठीक ही कहा है। ”रह गई जो अनकही वह कह रहा हूँ। यह न कहना भावना में बह रहा हूँ।“ तो वास्तव में कवि, मात्र भावना में बहकर कविता नहीं कर रहा है वह बड़ी सच्चाई के साथ जिन्दगी को सही राह पर लाने की बात कर रहा है। आज सही में ऐसी परिस्थितियों की नितान्त आवश्यकता है जो माँ और मानवता दोनों की मर्यादाओं को जीवंत बना सके उन्हें मूर्त रूप देकर समाज के सामने खड़ा कर सके।
ऐसा लगता है इस कृति को पढ़कर कि कवि ने बहुत भोगा है। इस प्रकार की विसंगतियों को, समाज के दर्द को उसकी कुंठा को, तभी तो वह उन्हें समाज में और अधिक नहीं रहने देना चाहता है। वह एक ऐसे समाज की रचना करना चाहता है जो माँ और मानवता के अनुशासन में फूले और फले।
लम्बी कविता के प्रयोग भी बहुत हुए हैं। गीत काव्य में तो कई ऐसे गीत है जो अपनी लम्बाई में ही पूरी कथा कह जाते हैं। परन्तु कवि गिल ने कोई कथा नहीं बुनी है। न किसी आख्यान को ही रूपांतरित किया है उन्होंने आज के युग में बदलते हुए सन्दर्भों के बीच अपनी खोई माँ मानवता की तलाश की है और उसे खेजने में आई कठिनाईयों के बीच उन सारे व्यवधानों, अवरोधों तथा पेरशानियों को रेखांकित किया है जो चारों ओर मुख फैलाऐ खड़ी हैं। उनका कवि हारना नहीं जानता है। यह अवश्य है कि वह अपनी जीत को भी हार मानकर उसे समाज के दर्दों को सौंप देना चाहता है। उनका मन्तव्य है कि कवि तभी जीत स्वीकारेगा जब समाज माँ-मानवता को ही आदर के साथ धारण कर सही अर्थों में जीने का संकल्प लेना सीखेगा।
अन्त में मैं कैप्टिन गिल की रचना धर्मिता का हृदय से स्वागत करता हूँ। कविता का प्रकार कैसा भी हो, वह कालीन हो, चाहे समकालीन हो, छन्दमुक्त हो चाहे मुक्त छन्द हो तुकान्त हो या अतुकान्त हो। कविता कविता होती है। इस कृति की ये कविताएँ भी अपने सृजन बोध में सही कविताएँ हैं। और वह भी एक अच्छी कविता। काव्य के क्षेत्र में इनका स्वागत होना चाहिए, इसके साथ ही कवि का भी और कवि के काव्य अंकुरण का भी।
पाठकों से भी मेरा निवेदन है कि इस कृति को ध्यान से पढ़ें। क्योंकि यह पढ़ने की पहल करती हुई कविता है।
इस विश्वास के साथ कि कवि शब्द यात्रा में थकेगा नहीं, निराश नहीं होगा। आगे ही बढ़ता जायेगा, एक कलम के सच्चे योद्धा की तरह भविष्य उसका पूरा साथ देगा। ईश्वर उनके पथ को प्रशस्त से प्रशस्ततर कर उनमें और अधिक नई चेतना भरे। क्योंकि कहा जाता है।
पतझरों के बाद बहारें लाती किसलय दल।
कर्कश काँटों पर मुस्काता है पुष्प कोमल
रवि की दाह अथाह उठाती सागर से पानी।
बूंद-बूंद आघात कि हो जाती धरती धानी।
सदा ध्वंस के बाद हुआ करता नूतन निर्माण
ठोकर खाकर ही होती है। राहों की पहचान।
बहुत-बहुत साधुवाद।
डॉ. हुकुमपाल सिंह विकल
29, इन्दिरा कॉलोनी
बाग उमरावदुल्हा, भोपाल