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आस-विस्वास / राम सिंहासन सिंह
Kavita Kosh से
न´ जानी ई मनुआ काहे
इतना आज उदास हई।
बहुत सोचली थाह न पवली
बइठल-बइठल समय गबउली
कोनो राह न´ सूझल हमरा
सभे तरफ हल भारी पहरा
ई मनुआ के न´ अब जग में
केकरो पर विस्वास हइ।
अपने में हथ सभ्भे डूबल
अपने से हथ सभ्भे उबल
अप्पन स्वारथ कैसे साधी?
ये ही हौ जन-जन के ब्याधी।
घना अंधेरा में ही देखऽ
दुबकल कहीं परकास हइ।
इतना हे सच फुलवा खिलतइ
नइका जोत-किरण कुछ मिलतइ
रतिया बिततइ, दिनवा अयतइ
चह-चह चिरगुन गीत सुनैतइ।
कंठ-कंठ में पियास जगल हौ
चलते सब के साँस हई।
जागऽ जागऽ - डगर डगर में
सोर मचल हौ नगर-नगर में
अइसन में कोनो न´ सुततइ
धरती के कन-कन तक जगतइ
नया रोसनी अयतइ अब तो
सबके मन में आस हई।।
न´ जानी ई मनुआ काहे
इतना आज उदास हई।