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आस / वीरेंद्र पंवार
Kavita Kosh से
मन्ख्या हाल देखि
बार बार
निरस्ये जंद सरेल
लगदु की अब कुछ नि हवे सकदो यख
कुछ नि होंण येयर बी
बाजिंदा झणी किले
जुकडिया कै कोणा बटी
उठदी आसे लूँग
कि कखी ना कखी
कबि ण कबि कुछ ण कुछ
जरुर होलु।