फूल कागजी भाता मानों अहम चीज हो।
भटक रही सभ्यता सखे! जैसे कनीज हो।
आहत संस्कृति मूल्य माँगते पानी देखे
अस्पताल में पड़ा हुआ कोई मरीज हो।
ब्रह्मचर्य वाला यौवन शोभा विहीन है,
नव परिधानों की ज्यों बिगड़ी हुई क्रीज हो।
विद्या और विवके रह गया है बस इतना,
जहाँ तहाँ पैबन्द लगी बूढ़ी कमीज हो।
प्रतिभाएँ निरूपाय पा रही पोषण, जैसे
बंजर में पावस तलाशता पड़ा बीज हो।
महँगाई का पहरा इतना कठिन लग रहा
फुटपाथों पर अब कैसे त्यौहार तीज हो?
कवि सम्मेलन के मंचों पर छनद खड़ा था
ढोंगी साधक का मानों निर्बल तबीज हो।