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आहत हैं वन. / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
भूल गये मौसम मधुमास के वचन
आहत हैं वन
आखेटक कई खड़े
सरहद के पार
कोंपल की घटनाएँ
हो रहीं शिकार
छूट रहे पेड़ों से हैं अपनेपन
काँप रहे ऋतुओं के
आखिरी पड़ाव
साँझ-ढले
पतझर के हैं गहरे दाँव
नीरव में गूँज रहे अपराधी छन
धुँध के किलों में
है बंदी आकाश
संकट से घिरा हुआ
फागुनी पलाश
एकाकी डूबा है सोच में विजन