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आहन की सुर्ख़ ताल पे हम रक़्स कर गए / साग़र सिद्दीक़ी

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आहन की सुर्ख़ ताल पे हम रक़्स कर गए
तक़दीर तेरी चाल पे हम रक़्स कर गए

पंछी बने तो रिफ़अत-ए-अफ़्लाक पर उड़े
अहल-ए-ज़मीं के हाल पे हम रक़्स कर गए

काँटों से एहतिजाज किया है कुछ इस तरह
गुलशन की डाल डाल पे हम रक़्स कर गए

वाइज़ फ़रेब-ए-शौक़ ने हम को लुभा लिया
फ़िरदौस के ख़याल पे हम रक़्स कर गए

हर ए‘तिबार हुस्न-ए-नज़र से गुज़र गए
हर हल्क़ा-हा-ए-जाल पे हम रक़्स कर गए

माँगा भी क्या तो क़तरा-ए-चश्म-ए-तसर्रफ़ात
‘साग़र’ तिरे सवाल पे हम रक़्स कर गए