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आह्वान / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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सीमान्त पर तनी हैं तलवारें
निहत्थे देश के सीने में दहका कर आग
प्रभुता के नशे में चूर हैं बूट।

अहंकार से ऐंठे चेहरे का चुरुट
समूहबद्ध जनता के हुंकार-ज्वार में
पलक झपकते डूब जाएगा।

हम लोगों के मुट्ठीबन्द हाथ के जवाब से
मुक्ति की दीवार का करेगी ज़ोरदार विरोध
काले कुहासे में नज़र पड़ गयी है धुँधली
सदियों से सींची गयी नफ़रतभरी खाकी वर्दी
और इस्पाती झिलम वाली देह
कुलबुलाती है आस्तीन में।

क़र्ज़ में डूबे किसानांे के घर-घर में कुंडली मारे बैठा है अकाल
जलते गु़स्से के चलते
हल जोत नहीं पाते ज़मीन, ढीली पड़ी है दोनों हाथों की मुट्ठियाँ।

बस्ती के निचले हिस्से के होठों पर जम्हाई-
तन गयी है, बेबस जर्जर घर में पैठी मृत्यु की भृकुटि।

ख़ामोश हैं करोड़ों कंठ के गान, सुस्त और बीमार पड़ी है धमनी-
थम गयी है ज़ोरदार खन्ती
अब भी तुम काहिल बने बैठे हो?
सोये दोस्तों को जगाओ, खून में उनके जले अब आग;
बन्दी है सेनापति, और आज तरकस है ख़ाली।