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आह, कितने जंगली ये लोग / राजेन्द्र गौतम

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आह, कितने जंगली ये लोग
हरदम रोटियों की बात करते हैं।

नित्य रचते स्वप्न हम तो इन्द्रधनुषों के
झिलमिलाती चाँदनी का शून्य में रचते महल
आम जनता की हमें तो खास चिन्ता है
सोचते हैं किस तरह इनका सकेगा मन बहल

किन्तु दकियानूस ये फुटपाथ की
थोड़ी जगह का राग रटते हैं।

मखमली आश्ववासनों के शाॅल जितने चाहिए लें
विविध-वर्णी योजना के हम बुनें कौशेय पट
चपल मुग्ध नीतियों के लोचनों से बाण छूटें
मोहती मन बहस की उलझी हुई यह श्याम लट

किन्तु कुण्ठित-बोध ये कब देखते
लड़ चीथड़ों पर रोज़ मरते हैं।

महक बसरा के गुलाबों की यहाँ आयात कर देंगे
रोप देंगे कल्पवृक्षों की यहाँ कल ‘नर्सरी’
भूख का या प्यास का अहसास ही क्यों हो
हम करेंगे चेतना की बन्धु ऐसी ‘सर्जरी’

पर हरें जादू-छड़ी से कष्ट पल में
सभी हमसे यह आस रखते हैं।