भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आह ! ह्वेनसाँग / नंद चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पारिजात के वन बारूद की सुरंगों में धधक रहे हैं
प्रत्येक देवदारू के नीचे मृत्यु निःशंक खड़ी है
ह्वेनसाँग क्या तुम इन्हीं मार्गों से भारत आये थे ?

इस पीढ़ी के बालकों ने इतिहास के उन पृष्ठों को फाड़ दिया है
जहाँ तुम्हारे देश का नाम लिखा है
तुम्हारी आकृति पर न जाने किन काले-पीले या नीले
रंग के चिन्ह अंकित कर दिये हैं
आह ह्वेनसाँग ! उन्हें समझाना कठिन हो गया है कि
तुम कोई आक्रान्ता नहीं थे
यायावर थे

सुनो ह्वेनसाँग ! घृणा विष है
और वह फैल रहा है
युवक इन दिनों प्रेम, श्रृंगार और युवतियों की बातें
नहीं करते हैं
वयस्क और वृद्ध तेज चलते हैं
तीखे बोलते हैं और अकारण छड़ियाँ घुमाते हैं
युवतियाँ कुछ भिन्न प्रकार से जूड़े कसती हैं
जनता अनभिव्यक्त व्यथा
आक्रोश और प्रतिशोध
मुट्ठियाँ तान-तानकर व्यक्त करती हैं
बुद्ध को सब श्रद्धा से नमस्कार तो करते है
लेकिन बन्दूक चलाने की दीक्षा लेते हैं
क्योंकि वे छले गये हैं

आह ह्वेनसाँग ! माओ-त्से-तुंग ने सेतु नहीं बनाये हैं
उन्होंने इतिहास की निरर्थक सरणियाँ दुहरायी हैं
क्योंकि उन्हें यह नहीं मालूम कि इतिहास की
स्याही रक्त नहीं है

हिन्दुस्तान ने युद्ध लड़े है, ह्वेनसाँग !
किन्तु वे युद्ध ही थे
अब युद्ध और घृणा दोनों हैं
युद्ध याद नहीं रहते
लेकिन घृणा घायल सर्प है
जो इतिहास के द्वार पर बार-बार
आहत फन पटकता है
और जनता शस्त्र उठाती है

तुम भारत से अपरिचित नहीं हो ह्वेनसाँग
उसका आकाश अभी भी स्वच्छ और नीला है
लेकिन भविष्य की अनेक पीढ़ियों की शिराओं में
यह जो घृणा का रक्त बहेगा
उसका दायित्व कौन सँभालेगा
दुःख है, ह्वेनसाँग जब बन्दूकें उठती हैं
लोग बुद्ध को भूल जातें हैं।

(भारत-चीन युद्ध के समय लिखी कविता)