भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आह ओढ़नी / वर्तिका नन्दा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओढ़नी में रंग थे, रस थे, बहक थी
ओढ़नी सरकी
ज़िस्म को छूती
ज़िस्म को लगा कोई अपना छूकर पार गया है
ओढ़नी का राग, वाद्य, संस्कार, अनुराग
सब युवती का शृंगार

ओढ़नी की लचक सहलाती सी
भरती भ्रमों पर भ्रम
देती युवती को अपरिमित संसार
यहाँ से वहां उड़ जाने के लिए।

दोनों का मौन
आने वाले मौसम
दफ्न होते बचपन के बीच का पुल है
                        
ओढ़नी दुनिया से आगे की क़िताब है
कौन पढ़े इसकी इबारत
ओढ़नी की रौशनाई
उसकी चुप्पी में छुपी शहनाई
उसकी सच्चाई
युवती के बचे चंद दिनों की
हौले से की भरपाई
ओढ़नी की सरकन अल्हड़ युवती ही समझती है
उसकी सरहदें, उसके इशारे, उसकी आहें
पर ओढ़नी का भ्रम टूटने में भला कहाँ लगती है कोई देरी