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आह भरते ही रहे हम प्यार में / रंजना वर्मा
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आह भरते ही रहे हम प्यार में
लुत्फ़ तो पाया महज़ इक़रार में
चार दिन की जिंदगी है प्यार कर
क्यों फँसा बेकार की तक़रार में
ज़िन्दगी ग़म का समन्दर ही सही
है न लज़्ज़त दर्द के इज़हार में
हम ज़माने से करें अब क्या गिला
है पड़ी इंसानियत मझधार में
ढूँढते फिरते जिसे पाया नहीं
रात इतनी भीड़ थी बाजार में
मेनकाएँ फिर रही हैं हर तरफ़
अब नहीं मिलती सिया संसार में
राम सा राजा नहीं है अब कहीं
मस्त सब रावन के ही किरदार में