आ गई कैसी सदी है,
जिस तरफ भी है, बदी है !
काँपते वन और पर्वत
ये हवाएँ भी डरी-सी,
कल तलक जो घूमती थीं
गाँव-गलियों में परी-सी;
बाँस के वन थरथराते,
काँपते बरगद पुराने,
भाग्य में अब क्या लिखा है
चलदलों के, कौन जाने !
गिरि-वनों से ही निकलते
सूख जाती अब नदी है !
जन्म से लेकर मृत्यु तक
बस समर का सिलसिला है,
कौन-सी सन्धि हुई है
दीप तम से जा मिला है;
कर्णिकारों के विपिन में
घुस गई सौ आँधियाँ हैं,
फूल, पत्ते, डालियों की
हृदयभेदी सिसकियाँ हैं ।
मंच कोई हो, कहीं हो,
खेल सब पर त्रासदी है ।