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आ गए उपवास वाले दिन / पंकज परिमल

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आ गए उपवास वाले दिन
हो गए —
निर्बीज कदलीफल बहुत महँगे

पूछता कोई न था
जिन क्षुद्र अन्नों को
आज वे कोदों-सवाँ भी
भाव खाते हैं
कह रहा है देवता
निर्लिप्त-सा होकर —
भक्त ! अब मुझको
न काजू-दाख भाते हैं

अब हुआ निर्भ्रान्त मन सस्ता
धूम के आवर्त
मन्दिर में हुए महँगे

फिर हुईं परिपाटियाँ
परिधान धर नूतन
गर्भगृह में
दीप की थाली घुमाने की
दक्षिणा बिन
देवता भी कहाँ पूछेगा
बढ़ गई प्रतियोगिता
डाली चढ़ाने की

मन्दिरों की बाढ़ आती है
शान्ति-सुख वाले
निरन्तर घर हुए महँगे