भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आ गए कुहरे भरे दिन / उमाशंकर तिवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आ गए,
कुहरे भरे दिन आ गए।
मेघ कन्धों पर धरे दिन आ गए ।

धूप का टुकडा़ कहीं भी
दूर तक दिखता नहीं,
रूठकर जैसे प्रवासी
ख़त कभी लिखता नहीं,
याद लेकर
सिरफिरे दिन आ गए ।

दूर तक लहरा रही आवाज़
सारस की कहीं है,
सुबह जैसे गुनगुनाकर श्वेत
स्वेटर बुन रही है,
आँख मलते
छोकरे दिन आ गए ।

इस शिखर से उस शिखर तक
मेघ-धारा फूटती है,
घाटियों के बीच जैसे
रेलगाड़ी छूटती है,
भाप पीते मसखरे दिन
आ गए ।

एक धुँधला पारदर्शी जाल
धीवर तानता है,
बर्फ़ को आकाश का रंगरेज़
चादर मानता है,
यों बदलकर
पैंतरे दिन आ गए ।

बाँध लेती हर नदी कुछ
सिलसिला-सा हो गया है,
मन पहाड़ी कैक्टस-सा
घाटियों में खो गया है,
नग्न होते
कैबरे दिन आ गए ।