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आ गया तुम को भी आख़िर फरेब का इल्मो-हुनर / मोहम्मद इरशाद


आ गया तुमको भी आख़िर फरेब का इल्मो-हुनर
दिन में भी दिखलाते हो तुम जगमगाता सा कमर

जो हकीकत के जहाँ में जी रहे थे अब तलक
ख़्वाब उनको क्यूँ दिखाये क्यूँ जलाये उनके घर

एक इंसाँ था ये पहले आज क्यूँ पत्थर हुआ
जाने क्या गुज़री है इस पर क्या पता किसको ख़बर

गर उतरना चाहते हो दिल में मेरे तो सुनो
हाथ तो तुमने मिलाये हैं मिला अब नज़र

किसकों फुरसत है जो सोचे हम कहाँ तक आ गये
भागती इस ज़िन्दगी में सब के सब हैं बेख़बर

मंज़िले ही मंज़िले हैं ज़िन्दगी की राह में
ख़त्म होगा मौत की बाँहों में जाकर ये सफर

दास्ताँ सुन करके मेरी रो पड़े ‘इरशाद’ क्यूँ
गम का रिश्ता है मेरा तुम से ये जिसका है असर