आ गया फिर गीत ले कर,
स्वाति-सीकर-प्रीत ले कर।
गीत, प्राणों की तपस्या,
यह अमिय का कलश छलछल,
नाद है यह कुण्डली का,
चीर-चानन-धार-कलकल;
मुक्त मन की जो हँसी है,
आँसुओं से नैन गीले,
संयमित जिसके चरण हैं,
भाव मुग्धा के सजीले।
आँच पर जो सो रहा है
काँच-मन नवनीत ले कर।
जब नहीं यह सृष्टि होगी
गीत होगा गूंज बन कर,
शब्द होंगे फिर इसी से
रश्मियों का लोक छन कर;
प्राण फूटेंगे धरा पर
मन मिलन-उत्सव रचेगा,
रूप की छवियाँ सजेंगी
मोद गीतांें का मचेगा।
उस समय भी मैं मिलूँगा
कल्प की यह रीत लेकर ।