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आ गया मेरे द्वार / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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हमें याद है निकट हमारे
तृण-कुटिर होते थे,
हारे-थके मनुज आ जिसमें
निर्भय हो सोते थे।

वह निश्छल भोला-सा
जीवन बहुत याद आता है,
देख सरलता जिसकी
सिर देवों का झुक जाता है।

शहरीकरण आ गया
मेरे द्वार और आंगन तक,
कंकरीट के वंश
निगलते जाते वन उपवन तक।

आता तो सावन है
लेकिन मौन चला जाता है,
बैठ छाँव में मरी
मेघ-मल्हर कहाँ गाता है?

कौन बाग में झूला डाले
सावन कौन सुनाये?
किसे समय है
झूले झूला सेनल स्वप्न सजाये?

स्वप्न हो गये रास रंग,
सावनी फुहार बहारें,
नीरस मेघ निकल जाते
ऊपर ऊपर मन मारे।

एकाकी निरूपाय
विवश मैं रोक नहीं पाता हूँ,
कैसे कहूँ हृदय की पीड़ा
कैसे सह जाता हूँ

देख रहा हूँ वंश
उजड़ता हुआ करूँ क्या वश है?
हाय! नष्ट हो रहा
साथ मेरे जीवन का रस है।

बँधी कर्म से काल उदर में,
रही जिन्दगी पच है,
‘दुःखालय यह लोक’
क्हा जाता है, सचमुच सच है।

मेरे नीचे बैठ
बुद्ध ने परम तत्व पाया था,
अन्तस का आलोक
उभरकर जगभर मे छाया था।

बौध धर्म के अंकुर
मेरी ही छाया में फूटे,
कुछ क्षण को ही सही
अहिंसा के बंधन तो टूटे।

“धम्मं शरणं बुद्धं शरणं
संघ शरणं“ गूँजा,
बहुत समय तक
मानवता ने बोधिसत्व को पूजा।

भारत, लंका, चीन
और जापान बने अनुयायी,
कंबोडिया, सुमात्रा,
जावा सबने महिमा गायी।

किन्तु बीतता गया समय
ज्यो-ज्यों, विकार अँखुआये,
संघारामों मे आचरण
अनैतिक थे घुस आये।

गये लिपटते माया से
आश्रम मठ मन्दिर पावन,
त्यों-त्यो होती रही क्षीण
गुरूता, गुरूज्ञान अपावन।

पीडा़ओं के ज्वार हृदय में
मेरे भी जागे थे,
भाग्यवान वे दिवस न
जने कहाँ चले भागे थे।

यद्यपि बोधिवृक्ष होकर
अब तक पूजा जाता हूँ,
तत्व गया रह गया प्रदर्शन,
इससे दुख पाता हूँ।

लगी समाधि अखण्डशन्ति
जो ऋषि पाया करते थे,
निर्विकार आलोक लोक
में भर जाया करते थे।

बना गया है बोधिवृक्ष
तप वही मुझे धरती पर
याद रहेगी सदा-सदा
वह कृपा तुम्हारी ऋषिवर!

परिजात, अक्षयवट
पीपल,तुलसी पूज्य गुणागर,
आम, नील, आँवला, पलाश,
बिल्व कदली-देवागर।

वन्दनीय हो गये सभी
ऋषियों के पावन तप से,
करते है कल्याण,
लोक मंगलनित अजपा जप-से।

ऋषियों ने था कहा-
अहिंसा परम धर्म है भाई,
किन्तु आज हिंसा सर्वोपरि
होकर जग में छायी।

एक मात्र हिंसा कारण
इच्छाओं का वर्द्धन,
जो अपूर्ण रहने पर
हिंसा को करती है सर्जन।

इच्छाओं पर अंकुश
जीवन का तप प्रमुख प्रबल है,
जिसके बिना आत्म
उन्नति हो पाती कहाँ सबल है।

किन्तु आज मै देख रहा हूँ
जीवन पोथी सारी,
आमुख से उपसंहारो
तक इच्छाओं से भारी।

कब तक मन गर्दभ
इच्छाओ का बोझा ढोयेगा?
रंचक सुख के लिए
युगों तक सिसक-सिसक रोयेगा

बोधि वृक्ष अपनी
खोयी गरिमा फिर कब पायेगा?
क्या जाने अपने अतीत
के ककब फिर दुहरायेगा?

लौट धरा पर एक बार
फिर से गौतम आ जाते
शन्ति अहिंसा और
प्रेम का पावन पाठ पढा़ते।

एक बार फिर से अपनी
संस्कृति आनन्द मनाती,
मन्द हो चली ज्योति धर्म की
फिर अभिनव छवि पाती।

फिर भाईाचारा
अपनापन लिए मुखर हो पाता,
तो फिर से वसुधा पर
जीवन निष्कलंक हो जाता।

राह देखता हूँ मैं
गौतम! आओ फिर से आओ
बैठ छाँव मे मेरी
फिर पावन बुद्धत्व जगाओ।

गाँधी बाबा ने जो
रामराज्य के स्वपन बुने थे,
सत्य अहिसां और
प्रेम के सात्विक रत्न चुने थे,

चमका दो फिर उन्हें
मनुजता के पावन आँगन में,
पडे़ हुए जो मौन
सघन कृतियों के युग-कानन में।

फिर संघारामों मे तेरी
गूंज उठे जग गाथा,
एक बार फिर से ऊँचा हो
मनवता का माथा।

जग उठे फिर सारनाथ से
सर नाथ! जीवन का
मिल जाये फिर से
जीवन को सहज साथ जीवन का।

एक बार जगती का कण-कण
मधुर प्रेम से भर दो,
पावन मन्दिर अम्ब भारती
का आलोकित कर दो।

आओ मेरे बुद्ध!
ज्ञान का दीपक लेकर आओ
जीवन के तमसाविल गव्हर
में आलोक जगाओ।