आ तेरा श्रृंगार सजा दूँ / राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल
आ तेरा श्रृंगार सजा दूँ
ओ माटी के धुँधले दीपक
आ तेरा आकार बना दूँ
आ तेरा श्रृंगार सजा दूँ
घुमड़ रही है व्यथा सृष्टि में
और मधुर तुम भरी दृष्टि में
प्राणों की कल्पने अरी,
इस जगती-सा साकार बना दूँ।
आ तेरा श्रृंगार सजा दूँ
चंचल लोचन अस्थिर पलकें
झाँके सत्य सृष्टि चिलमन के
अरी शरीरी विकल्प वेदने,
तुझमें हाहाकार जगा दूँ।
आ तेरा श्रृंगार सजा दूँ
स्मृति के ये आँसू अविरल
झरते असफलता में प्रतिपल
तरल दृगों के शुभ्र-पटल पर
शाश्वत नव चीत्कार सजा दूँ।
आ तेरा श्रृंगार सजा दूँ
जला अचंचल प्रातः सोया
स्पप्न मृत्तिका दीपक खोया
प्राण मृत्यु की मूक निशा में
मीठी चुप झंकार सुना दूँ
और चिरंतन पथ विकास को
विस्तृत जब संसार रचा दूँ
प्राण, अरे श्रृंगार सजा दूँ