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आ निकल के मैदां में दोरुख़ी के ख़ाने से / मजरूह सुल्तानपुरी

आ निकल के मैदाँ में दोरुख़ी के ख़ाने से
काम चल नहीं सकता अब किसी बहाने से

अहदे-इन्कि़लाब आया, दौरे-आफ़ताब आया
मुन्तज़िर थीं ये आंखें जिसकी इक ज़माने से

अब ज़मीन गाएगी हल के साज़ पर नग़्मे
वादियों में नाचेंगे हर तरफ़ तराने-से

अहले-दिल उगाएँगे ख़ाक से महो-अंजुम
अब गुहर सुबक होगा जौ के एक दाने से

मनचले गुनेंगे अब रंगो-बू के पैराहन
अब संवर के निकलेगा हुस्‍न कारख़ाने से

आ़म होगा अब हमदम सब पे फ़ैज़ फ़ितरत का
भर सकेंगे अब दामन हम भी इस ख़ज़ाने से

सुनते हम तो क्या सुनते इक बुज़ुर्ग की बातें
सुबह को इलाक़ा क्या शाम के फ़साने से