भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आ पड़ा हूँ नाउमीदी के खुले मैदान में / ‘शुजाअ’ खावर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


आ पड़ा हूँ नाउमीदी के खुले मैदान में
कोई घर ख़ाली नहीं है कूचा-ए-इमकान में

आम इंसा क्या मुफ़क्किर भी रहे नुक़सान में
बामो-दर क्या फ़लसफ़े भी उड़ गए तूफ़ान में

हम समझते थे फ़क़त हम ही हैं इस बुहरान में
देखकर बेजान सबको जान आयी जान में

है मुक़द्दसतर शबे-वादा से रोज़े-इन्तिज़ार
सच्चे रोज़ेदार की तो ईद है रमज़ान में

अपनी ग़ुरबत का ज़ियादा तज़करा अच्छा नहीं
फ़ारसी ख़ुद अजनबी लगती हो जब ईरान में

शायरी में गुफ़्तगू के लफ़्ज़ हम लाये मगर
फूल जो अस्ली थे मसनूई लगे गुलदान में

आपका अंदाज़ रहना चाहिए था आप तक
ग़ैर भी करता है गुस्ताख़ी हमारी शान में

शिद्दते-तन्हाई की तारीख़ गोया दफ़्न है
मेरी तन्हा चारपाई के शिकस्ता बान में

सारी दुनिया कर रही है उसकी सहरा में तलाश
और दीवाना छुपा है ‘मीर’ के दीवान में