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आ पहुँचा जब द्वार तुम्हारे / हरीश प्रधान

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आ पहुँचा जब द्वार तुम्‍हारे
याचक तो बन गया सहज ही
तुम्‍ही कहो, फिर यों अब अपनी
अभिलाषाएँ और दबाऊँ?

चाहा संयम की चादर से
इच्छाओं को कफन उढ़ा दूँ
यौवन के चंचल उभार पर
गुरूताओं का बोझ चढ़ा दूँ

लेकिन दुनियाँदार नज़र ने
जब बदनाम मुझे कर डाला
फिर यों उठते अरमानों का
घुटन भरा दायरा बनाऊँ?

आ पहुँचा जब द्वार तुम्‍हारे...
लाख-लाख कोशिश की
तट पर खड़े-खड़े ये उमर गुजारूँ
सीमाओं की कोर बांध लूं
बोझिल होकर नहीं पुकारूं

पर कम्‍बख्‍़त लहर ने आकर
मझधारों में नाव डाल दी
क्‍यों ना? अब लहरों से खेलूं
तूफानों से यों घबराऊँ
आ पहुँचा जब द्वार तुम्‍हारे ...