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आ फँसा हूँ हिज्र के जंजाल में / 'सिराज' औरंगाबादी
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आ फँसा हूँ हिज्र के जंजाल में
अब मुझे ताक़त नहीं इस हाल में
आक़िलों कूँ गरचे है फ़िक्र-ए-रसा
बंद हैं तुझ ज़ुल्फ़ के इशकाल में
हूँ शब-ए-हिज्राँ में मोहताज-ए-विसाल
कर भिकारी पर धरम इस काल में
चल पड़ी है फ़ौज में आराम के
क्या क़यामत है तुम्हारी चाल में
सामने है जिस कूँ हुस्न-ए-ला-यज़ाल
दम-ब-दम ख़ुश हाल हैं हर हाल में
मुसहफ़-ए-दिल खोल जब देखा ‘सिराज’
सूर-ए-इख़लास निकला फ़ाल में