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आ ही गए बादल घुमड़कर / जगदीश पंकज
Kavita Kosh से
अन्ततः आ ही गए
बादल घुमड़कर
श्रावणी श्रृंगारिका से
केश लहराते हुए
लगी झरने बूँद
मेघों को चुआती
उठी सौंधी गन्ध
धरती के बदन से
ले रहे अँगड़ाइयाँ
अब पेड़-पौधे
टहनियों ने तृप्ति
पाई है गगन से
जग गया यौवन, कुँवारा
छोड़ तन्द्रा
रोम-रन्ध्रों से मदालस
रागिनी गाते हुए
आ गईं बौछार
खिड़की खोलकर अब
छू दिए जो अंग
मदमाने लगे हैं
तोड़कर अँगड़ाइयों
की वर्जनाएँ
मेह, हर्षित देह
सहलाने लगे हैं
बाल,वृद्धों में पुलक,
पावस-परस से
लाज से सिमटी नवेली
नैन शरमाते हुए