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इंच भर ज़मीं से उठ जाने की ज़िद अच्छी नहीं। / राजेश चड्ढा

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इंच भर ज़मीं से उठ जाने की ज़िद अच्छी नहीं।
नाहक़ आसमान तक जाने की ज़िद अच्छी नहीं।

माना दर-ओ-दीवार ने बढ़ कर कभी रोका नहीं,
घर तो घर है देर से आने की ज़िद अच्छी नहीं।

मेरी छत किसी का फ़र्श है मेरा फ़र्श किसी की छत,
नाम मेरा मक़ान पे लगाने की ज़िद अच्छी नहीं।

मैं भी सेकूं तुम भी सेको अपनी-अपनी आग पर,
बाँट कर रोटी यहाँ खाने की ज़िद अच्छी नहीं।

तेरा ग़म रदीफ़ है और मेरा ग़म है काफ़िया,
इक दूसरे को शेर सुनाने की ज़िद अच्छी नहीं।

दूरियां मिट जाएँगी आँखों में तुम आओ तो सही,
सीढ़ियों से हो के पास आने की ज़िद अच्छी नहीं।