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इंटरनेट पर कवि / सिद्धेश्वर सिंह

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कवि अब इंटरनेट पर है
व्योम में विचर रहा है उसका काव्य
दिक्काल की सीमाओं से परे
नाच रहे हैं उसके शब्द
विश्वग्राम के निविड़ नुक्कड़ पर ।

कवि अभिभूत है
अब नहीं रहा तनिक भी संशय
कि एक न एक दिन
भूतपूर्व हो जाएँगे छपे हुए शब्द
और पुरातात्विक उत्खनन के बाद ही
सतह पर उतराएगी क़िताबों की दुनिया
जिन पर साफ़ पढ़े जा सकेंगे
दीमकों - तिलचट्टों - गुबरैलों के खुरदरे हस्ताक्षर ।

कवि अब भी लौटता है बारम्बार
कुदाल खुरपी खटिया बँहगी सिल लोढ़ा
और..और उन तमाम उपादानों की ओर
जिनका तिरोहित होना लाजमी है
तभी तो दीखती हैं जड़ें
जिन्हें देख-देख होता है वह मुग्ध मुदित ।

सारे सतगुरु सारे संत कह गए हैं
काग़ज़ की पुड़िया है यह निस्सार संसार
इसे गलना है गल जाना है
सब कुछ हो जाना है काग़ज़ से विलग विरक्त
जैसे कि यह इंटरनेट
जिस पर अब कवि है अपनी कविता के साथ ।

रात के एकान्त अँधेरे में
जब जुगनू भी बुझा देते हैं अपनी लालटेन
तब कोई शख़्स
चोर की तरह खोलता है एक जंग लगा बक्सा
और निकालता है पीले पड़ चुके पत्र
जिनके लिखने का फार्मूला कहीं गुम हो गया है ।

आओ एक काम करें
इंटरनेट खँगालें और किसी पाठक को करें ईमेल
देखें कि वह कहाँ है
इस विपुला पॄथ्वी
और अनंत आकाश के बीच
कवि तो अब इंटरनेट पर है
व्योम में विचर रहा है उसका काव्य ।