इंतज़ार का शाल / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

तुम इंतज़ार का शाल लपेट कर शाम की ग़ज़ल सुनती हो
अकेले छत पर बैठ कर सुहानी हवाओं में क्या सुनती हो

अपनी उंगलियों में छुपाए हुए रोशनी के फूल खोलो
बहुत जादुई हैं उंगलियाँ इनमें क्या राज गुनती हो

चेहरे में रोशनी भरी मुस्कान की इंतहा चमक है
क्या अपनी उंगलियों से रोशनी के कन चुनती हो

क्यों अकेले खड़ी हो खिड़कियों में अंधेरे आ चुके हैं
बल्ब की मद्विम रोशनी में कौन सा अहसास बुनती हो

हम दिन और रात को अपना बना के रखते हैं
तुम अपनी ज़िन्दगी को क्यों पल-पल रूनती हो

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