भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इंतजार में है , गली / महेश कुमार केशरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये अजीब इतेफाक
है,उस लड़की के साथ कि
एक ही राह से गुजरते हुए
एक ही रास्ते में पड़ता है
उसका घर और ससुराल

सड़क से गुजरते वक्त
मुड़ती है एक गली
जो जाती है उसके पीहर
तक,

पीहर कि गली से लौटते समय
बहुत मन होता कि वो
घूम आये अम्मा - बाबू के घर
कि देख आये अपने हाथ से लगया
पेंड़ पर का झूला

दे, आये फिर, तुलसी -
पिंड़ा को पानी

दिखा दे एक बार फिर,
घर - आंँगन में बाती

या कि घर के आँगन के
काई लगे हिस्से को
रगड़- रगड़ कर कर दे साफ
जहाँ, सीढ़ियाँ उतरते
वक्त गिर गई थीं माई

दे, आये एक कप चाय
और, दवाई अपने बाबू को
जिनको चाय की बहुत तलब
लगती है

जमा कर दे फिर से
अलमारी में
घर के बिखरे कपड़े

सीलन लगी
किताबों को दिखा
आये, धूप

दुख रहे सिर, पर
रखवा, आये अम्मा
से तेल
करवा आये
एक लंबी मालिश

खाने, चले चूरण वाले
स्कूल के चाचा की चाट

कर, ले थोड़ा ठहरकर
अपने भाई - बहनों और पड़ौस
की सहेलियों से हँसी और ठिठोली

दौड़कर, चढ़ जाये वो,
छत की सीढ़ियाँ

बाँध, आये भाई कि कलाई
पर राखी

एक बार फिर से भर ले
अपनी आँखों में ढेर सारी नींद

लेकिन, नहीं क़दम अब
उधर नहीं जाते, नहीं थमते
उस दरवाज़े तक
जहाँ सालों रही

एक अजनबी पन उतर आया
है, उसके व्यवहार में
नहीं ठहरते उसके कदम
पीहर तक आकर!

वो, जानबूझकर, बढ़
जाती है आगे...
जहाँ पहुंँचकर उसका
एक आँगन और उसके बच्चे
इंतज़ार कर रहें हैं
उसका

बाट, जोहती और
ताकती हुई गली हैरत
में है, लड़की को देखकर!