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इंतिज़ार की रात / ख़ुर्शीद-उल-इस्लाम

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तेरी वादी के सनोबर मेरे सहरा के बबूल
उन पे इक लर्ज़ा सा तारी उन के मुरझाए से फूल
तेरा जी उन से ख़फ़ा और मेरा दिल उन पर मलूल

क्या ये मुमकिन है कि उन का फ़ासला हो जाए कम
ख़ाक के सीने पे आख़िर कब तलक ये बार-ए-ग़म