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इंदु तुल्य शोभने / अज्ञेय

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इन्दु-तुल्य शोभने, तुषार-शीतले!
हीरक-सी थी तू अतिशय ज्योतिर्मय, तेरी उस आभा ने मुझे भुलाया।
हीरक है पाषाण- अधिक काठिन्यमय! आज जान मैं पाया!
आज- दर्प जब चूर्ण हो चुका तेरे चरण तले!
इन्दु-तुल्य शोभने, तुषार-शीलते!
बार-बार अब आ कर कहता संशय-
तू नत था इस वज्रखंड के सम्मुख
मैं था? या प्राणों में कोई दानव दुर्जय, दुर्निवार, प्रलयोन्मुख!
अब, जब मेरे जीवन-दीपक बुझ-बुझ सभी चले!
इन्दु-तुल्य शोभने, तुषार-शीतले!

लाहौर किला, 15 मार्च, 1934