उस बूढ़ी भिखारिन के कटोरे में,
पांच रुपये का सिक्का डाल,
मैंने जुटाई है अपने लिए
प्रेरणा बेमिसाल!
लिखूंगी कोई कविता उस पे
और कर दूंगी गोष्ठी को
अपनी ‘मानवीयता’ से निहाल!
या उडे़लंूंगी कैनवॉस पे
रंगों से ऐसा दर्द
कि इस भिखारिन का झुर्रीदार चेहरा,
किसी ड्राइंगरूम की मरकरी लाइट तले झिलमिलाए
और हो जाए मेरी जेब भी मालामाल।
या फिर इस गंदी भिखारिन का
एक फोटो ही खंीच लूं,
इससे भी हल हो सकता है
मेरी शोहरत का सवाल,
मेरे पांच रुपये से इस भिखारिन की
जिंदगी तो नहीं बदल पाएगी,
पर हां, इसकी बदहाली, भूख, बेबसी,
मेरे रचनात्मकता की दुकान के लिए
थोड़ी शोहरत और थोड़े खरीदार
जरूर जुटा लाएगी।

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