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इंसान जब सिर्फ इंसान होता है / शारदा शर्मा / सुमन पोखरेल

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संवेदनाओं के बिंदुओं पर
मानवीयता के स्पर्शों से
तुम इंसान को टटोलकर देखना कभी-कभी
वह कितना खुला, प्यारा और सुंदर होता है
कितना कोमल, सहृदय और उर्वर होता है

भावनाओं की अविरल धाराओं में
एकांत की विचलित उड़ानों में
सहानुभूति की आर्द्र तरंगों से
तुम इंसान को छूकर देखना कभी-कभी
वह कितना अकिंचन, निरुपाय और असहाय होता है
कितना अकेला, कमजोर और तरल होता है

प्रेम के शाश्वत मूल्यों में
ममता के हार्दिक आग्रहों से
आँखों की कंचन झीलों के भीतर
तुम इंसान का वास्तविक बिंब ढूंढकर देखना कभी-कभी
वह कितना भावुक, आत्मीय और शीतल होता है
कितना महान, निर्मल और ऊँचा होता है

खौफनाक खड्डे लिए अपने ही अंदर
अपनी कब्र को खुद खोदते-पाटते
अभाव, रिक्तता और विषादों को पालकर जीता हुआ इंसान
डरावनी कठिन यात्राओं को तय करके
आंधी, तूफान और प्रलय को झेलकर
टूटते, बिखरते, बनते
एक ही ज़िंदगी में
सैकड़ों बार जलते, बुझते, जलते
संभावित युद्धों की तैयारी में
खुद को यथासंभव समेटकर
हर पल सतर्क होकर दौड़ता हुआ यांत्रिक इंसान
तूफान की निश्वास लेता हुआ बेफुर्सती राक्षसी इंसान
जी हाँ, वही इंसान
जब
सारे आवरण और नकाब उतारकर
कभी-कभार बेचैन होकर
सचमुच का इंसान बनकर
अकेले खुद ही को ढूंढ रहा होता है
ऐसे ही नाज़ुक प्रसंगों पर
ऐसे ही अनावृत क्षणों में
तुम पढ़कर देखना, आँककर देखना इंसान की सीमाएँ और सामर्थ्य को
सत्य के प्राकृत मापदंडों से
नापकर देखना उसकी लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई
संपूर्ण विवादों, आडंबरों और जटिलताओं के बावजूद
वह कितना प्यारा, सरल और निष्कपट होता है
कितना पवित्र, निष्पाप और निर्दोष होता है

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