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इक्कीसवीं सदी का आम आदमी-1 / लीलाधर जगूड़ी
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बीसवीं सदी के आम आदमी जैसा नहीं रहा
इक्कीसवीं सदी का आम आदमी
सिविल सोसाइटी के एक होनहार कार्यकर्ता ने कहा
-- नेतृत्व खाएगा देश तो प्रधान क्या खाएगा ?
प्रधानों का भी खाने-कमाने का क्षेत्र बढ़ाओ
छोटे बजट से लग रहा है गबन ज़्यादा विकास कम हुआ है
परधानी में भी खुलकर हिस्सा माँग रहा है नया आदमी
यह बजटवार आज़ादी करती है वोट वसूली
थाने जैसी
कानूनन ज़ुर्माने जैसी
सही पते-ठिकाने जैसी
सड़क का चौड़ीकरण हो चाहे आधुनिकीकरण
नगदीकरण नहीं तो यह बेगार भला क्यों ?
फ़र्जीफ़िकेशन होता रहे और हम उफ़ भी न करें
सदाचार तो दे न सको हो
इतना भ्रष्टाचार बको हो
कहने का ही लोकतंत्र है क्यों न कह दिया जाय
-- पैसे बिन अब रहा न जाए ।।