इक्कीसवीं सदी का भविष्य
बीसवीं सदी के 
पौराणिक होते-होते
एक प्रदूषणजन्य कण्ठशोथ के चलते,
मुर्गे बांग नहीं दे पाएंगे
तब, 
कंप्यूटरी एलार्म
नींद का ताला खोल
अलसायी चैतन्यता को 
दिनचर्या से लड़ने 
खड़ा  करेगा,
सुबह की सूरत 
कुछ ऐसी होगी 
कि धूप आंगन में 
टूटते कांच के बर्तन जैसा 
बिखरकर, चुभकर 
पैरों को लहूलुहान कर देगी
बेशक! 
सुबह और शाम का
इन्गूरी-सिंदूरी होना
कवि की कल्पना में
अभी भी जीवित होगा
जबकि 
धूप का गरम चाकू 
आँखों को चीरता चला जाएगा
और इन्द्रधनुषी मौसम की
कुछ परछाइयां ही
शेष रह जाएँगी,
यानी, जाड़ा कंटीले कुहरे से
बिंधा कराह रहा होगा,
ग्रीष्म धूप की धौंस से 
जंगल की दुर्लभ छाया
तलाश रहा होगा
और मानसून में 
तेजाबी बौछारों के आतंक से 
(आलू और कुकुरमुत्ते की)
कुछ जीवित बची फसलें 
और कहने को इंसान 
छतों-टेंटों के नीचे होंगे
जबकि
वसंत के साथ पतझड़ भी 
किंवदंती हो जाएंगे
यानी, इक्कीसवीं सदी के 
अधेड़ होते-होते
छज्जों पर चहचहाने को
गोरैयाएं नहीं होंगी,
मिथक बन चुके
पुष्प-पादपों के
ऊपर मंडराने को 
बेताब भौंरे
सामूहिक रूप से
आत्महत्या कर लेंगे
और दुर्लभ हो चुकी
प्रात:कालीन ओस की
मालाएं पहनने को
दूब का बलखाता गला नहीं होगा,
सपनीली तितलियां 
शुष्क दिलों का ग्रास बन जाएँगी
या, किसी आकाशीय लोक में 
स्थायी प्रवास कर जाएँगी,
वन्शोमूलन के कगार पर 
छटपटाती मधुमक्खियां डंक मारेंगी--
अपने झुराए छतों में
जिनसे शहद के रूप में 
विषाणुयुक्त तरल टपकेगा
और शत-प्रतिशत कुष्ठग्रस्त मानव
उससे बचने की
हरसंभव युक्ति करेगा.
मकान के
वास्तुकोश में 
ढूँढते रह जाएंगे हम 
किचन और बाथरूम, 
जिनके स्थान पर 
होगा एक कम्प्यूटर-कक्ष 
जहां चौंधियाती रोशनी में 
नहाए-धोएगा 
हमारा नपुंसक तन,
एक आक्सीज़न वर्कशाप भी होगा 
घर के हर सदस्य के 
नियंत्रण कक्ष में-- 
आक्सीज़न सप्लाई के लिए 
जहां से वह अपनों की
संदिग्ध गतिविधियों पर 
चौकसी रखेगा, 
उनकी साजिशों का
पर्दाफ़ाश करेगा, 
उनके तन-मन की 
एकसाथ नंगाझोरी करेगा
नियंत्रण कक्ष से
वह आजीवन सत्तर बार ही 
निकल सकेगा, 
अन्यथा, प्रदूषण फैलाने के 
खतरनाक जुर्म में 
वह दण्डित होगा
और जब कभी वह निकलेगा बाहर
तो विशेष प्रदूषण-रोधी यंत्र पहनकर
और  अगुवाई करते
रोबटों की अंगुलियां थामकर,
उन विसंक्रमित भूगर्भीय सुरंगों से 
जो उन्हें महफूज़ होने की गारंटी देंगे
रोग और खिलंदड़े हत्यारों से
इक्कीसवीं सदी का
पटाक्षेप होते-होते
आसमान में छाए होंगे
अविच्छिन्न कुहराए
कार्बन-मोनो-आक्साइड के
अर्ध-वायव, अर्ध-पिंडाकार गुबार
और स्थूलकाय मकड़ों का साम्राज्य
इतना फैल चुका होगा कि
वे अबाध-अटूट बुन सकेंगे
आसमान में मकड़जाल
और खा सकेंगे 
स्वादिष्ट पंखदार ब्याल
जो खाने को जबड़ों में दबोचे 
दैत्याकार चमगादड़ 
कहीं अपारदर्शी कुहरों की
दीवाल की आड़ में प्राइवेसी
तलाश रहे होंगे.
(रचना-काल: ०४-०५-१९९४)