भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इक्कीसवीं सदी की रथयात्रा / प्रियंकर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भेड़िये
अब धम्मम् शरणम् गच्छामि
का जाप करते हुए
नगर के प्रवेशद्वार तक आ पहुँचे हैं

अनुरोध के अनुसार
पहला समागम
मेमनों के मोहल्ले में ही होगा

– अरे नहीं ! डर कैसा ?
देखते नहीं उनका पवित्र पीताम्बर शुभ्र यज्ञोपवीत
हवा की बेलौस चाल में
पताका सी फहराती रामनामी
अमन का राग गाती स्निग्ध वाणी

कैसा दिव्य आलोक है
मुखमंडल पर
ओह ! कैसा तेजोमय रूप है

धन्यभाग! धन्यभाग!
आचार्य श्री के
दिवराला-समागम में दिए गए
प्रवचन का ही तो पुण्य-प्रताप है
कि दिल्ली से दमिश्क तक
दिवराला विख्यात है

यहां भी महिलाओं हेतु
पृथक व्यवस्था है
आचार्य जी को भान है कि
भारत एक गरीब मुल्क है
अत: घृत व समिधा की व्यवस्था
“पहले आओ-पहले पाओ”
के आधार पर निशुल्क है

पूज्यपाद का उद्घोष है कि वे
”विशुद्ध आदिम धर्म को आस्था का केन्द्र बनायेंगे”
सम्राट की ओर से सूचना –
”इक्कीसवीं सदी के रथारोही अब वाया दिवराला जायेंगे ।”