भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इक्को रंग कपाई दा / बुल्ले शाह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इक्को रंग कपाई दा।
सभे इक्को रंग कपाही दा,
इक आपे रूप वटाई दा।
अरूड़ी ते जे गद्दों चरावै,
सो भी वागी गाई दा।
सभ नगराँ विच्च आपे वस्से,
ओहों मेहर सराई<ref>घर</ref> दा।
हरजी आपे हर जा खेले,
सद्दया चाईं चाईं दा।
बाज बहाराँ ताँ तूँ वेखें,
थीवें चाक अराईं<ref>एक जाति</ref> दा।
इशक मुश्क दी सार की जाणे,
कुत्ता सूर सराईं दा।
बुल्ला तिस नूँ वेख हमेशाँ,
एह दरसन साईं दा।

शब्दार्थ
<references/>