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इक आईना ख़ुद के बराबर क्या कम है / कृश्न कुमार 'तूर'


एक आईना ख़ुद के बराबर क्या कम है
जो कुछ है सीने के अन्दर क्या कम है

अब किस बात पे आसमान में जस्त भरूँ
पैरों से चिपका हुआ समन्दर क्या कम है

क्यों आँखे इक दूर उफ़क़ में देखती हैं
पड़ी हुई ये लकीर ज़मीं पर क्या कम है

कुछ उभरा तो है आँखों के पर्दे पर
उस के हाथ में ये इक ख़ंजर क्या कम है

इससे ज़ियादा और की ख़्वाहिश क्या है मुझे
मेरे बदन को दर्द का बिस्तर क्या कम है

हर इक इम्तेहाँ में पूरा उतरा हूँ
मेरी अना को एक मेरा सर क्या कम है

वो क्यों बाहर फुलझड़ियाँ-सी छोड़ता है
‘तूर’ तमाशा मेरे अन्दर क्या कम है