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इक आग तन बदन में लगाती है चांदनी / राजेंद्र नाथ 'रहबर'
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इक आग तन बदन में लगाती है चांदनी
हां दिल जलों को और जलाती है चांदनी
नग़्मे मुहब्बतों के सुनाती है चांदनी
जादू खुली छतों पे जगाती है चांदनी
आती है दिल को एक शबे-दिलनशीं की याद
जब साहिलों पे धूम मचाती है चांदनी
पुर-दर्द लय में पिछले पहर इक उदास गीत
महरूमियों के साज़ पे गाती है चांदनी
सैरे-चमन को तुम जो निकलते हो रात को
फूलों से रास्तों को सजाती है चांदनी
लेती है तेरी ज़ुल्फ़ से बादे-सबा महक
तेरे बदन से रूप चुराती है चांदनी
यकसां हैं चांदनी की नज़र में गदा-ओ-शाह
दर पर गदा-ओ-शाह के जाती है चांदनी
पड़ती है ये दिलों पे कभी तो फुहार सी
'रहबर` कभी दिलों को जलाती है चांदनी