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इक आलम-ए-हैरत है, फ़ना है न बक़ा है/ असग़र गोण्डवी

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इक आलम-ए-हैरत है, फ़ना है न बक़ा है
हैरत भी ये है कि, क्या जानिए क्या है

सौ बार जला है तो, ये सौ बार बना है
हम सख़्त जानों का, नशेमन भी बला है

होठों पे तबस्सुम है, कि एक बर्क़-ए-बला है
आंखों का इशारा है, कि सैलाब-ए-फ़ना है

सुनता हूँ बड़े गौर से, अफ़साना-ए-हस्ती
कुछ ख़्वाब है कुछ अस्ल है, कुछ तर्ज़-ए-अदा है

है तेरे तसव्वुर से यहाँ, नूर की बारिश
ये जान-ए-हज़ीं है कि, शबिस्तान-ए-हिरा है