इक इनसान का चले जाना / रमेश क्षितिज / राजकुमार श्रेष्ठ
इनसान सर्वोत्कृष्ट हुनर है कायनात का
वो गया तो जाएँगी साथ में
किसी ख़्वाब में डूबी-सी उसकी गम्भीर आँखें
या दुर्लभ मुस्कान
उसका हुनर और बहुत से रहस्य
जाते-जाते ले जाएगा साथ में वो
कल्पना का बड़ा शहर
ख़ुद तय कर चुका अपने दौर की चौड़ी सड़क
और बसर किए रोमांचक इतिहास को रुमाल की तरह
जेब में डालकर
चल देगा वो किसी अनिर्दिष्ट डगर की ओर
कितना रोया था दिल में लगे
ज़ख़्मों को तन्हाई में गिनते
या कितना हँसा था सफ़र की मीठी घटनाओं को याद करते
बहुत-सी ऐसी कहानियाँ ले जाएगा साथ अपने
छोड़ जाएगा वो केवल कुछ धुँधली यादें
इक इनसान चला जाए तो नहीं होगा
हज़ारों लोगों की भीड़ में वो
नहीं सुनाई देंगे उसके लफ़्ज़,
नहीं दिखेगा चेहरा
नहीं होगी मुलाक़ात किसी भी रात्रि-भोज में
सशरीर उसकी मौज़ूदगी
इक इनसान वाकई चला जाए तो
कितना सूना-सूना बना देता है इक जहाँ !
अभाव का चश्मा लगने के बाद
हम देखते हैं दूर जा चुका
इनसान का मख्सूस वज़ूद
लेकिन उस वक़्त वो हमें सुनता नहीं
लौटकर हमारे पास आता नहीं
अभी रोक ही लो उसे अपने प्यार से !
मूल नेपाली भाषा से अनुवाद : राजकुमार श्रेष्ठ