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इक ख़ुशनुमा सा ख़्वाब सजाने नहीं दिया / अजय अज्ञात
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इक ख़ुशनुमा-सा ख़्वाब सजाने नहीं दिया
दिल को ज़रा सुकून भी आने नहीं दिया
पलभर की भी जुदाई न मंजूर है जिसे
उस ने कभी क़रीब भी आने नहीं दिया
जितने भी ग़म मिले हमें वो ज़ब्त कर लिए
आँखों को एक अश्क बहाने नहीं दिया
टीका लगा के माँ ने मेरे कान के करीब
मुझ तक बला के साये को आने नहीं दिया
जल्दी थी ऐसी मौत को आने की क्या ‘अजय’
इस जिं़दगी का साथ निभाने नहीं दिया