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इक ख़्वाब ले रहा है ऊँची उड़ान फिर/वीरेन्द्र खरे अकेला
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इक ख़्वाब ले रहा है ऊँची उड़ान फिर
थामे समय खड़ा है तीरो-कमान फिर
मन का कृषक न कैसे पाले उदासियाँ
उत्पादनों से ज़्यादा बैठा लगान फिर
सच था अगर बयाँ तो मुन्सिफ़ के सामने
क्यों लड़खड़ा रही थी तेरी ज़बान फिर
रोका न था, हवेली हक़ मांगने न जा
ले मिल गए बदन को नीले निशान फिर
सुख तो बरफ़ सा घुल कर ढेले सा रह गया
दुख है कि हो चला है परबत समान फिर
सूरज तो है तमाशा बस दिन का दोस्तो
नन्हें से जुगनुओं ने दाग़ा बयान फिर
हरदम ‘अकेला’ तेरे मन की कहाँ से हो
सर पे उठा रखा है क्यों आसमान फिर